Skip to main content

ज्ञानयोग - ज्ञानयोग के साधन - बहिरंग साधन , अन्तरंग साधन

 ज्ञान व विज्ञान की धारायें वेदों में व्याप्त है । वेद का अर्थ ज्ञान के रूप मे लेते है ‘ज्ञान’ अर्थात जिससे व्यष्टि व समष्टि के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है। ज्ञान, विद् धातु से व्युत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ किसी भी विषय, पदार्थ आदि को जानना या अनुभव करना होता है। ज्ञान की विशेषता व महत्त्व के विषय में बतलाते हुए कहा गया है

"ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा"
अर्थात जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जलाकर भस्म कर देती है उसी प्रकार ज्ञान रुपी अग्नि कर्म रूपी ईंधन को भस्म कर देती है। ज्ञानयोग साधना पद्धति, ज्ञान पर आधारित होती है इसीलिए इसको ज्ञानयोग की संज्ञा दी गयी है। ज्ञानयोग पद्धति मे योग का बौद्धिक और दार्शनिक पक्ष समाहित होता है।
ज्ञानयोग 'ब्रहासत्यं जगतमिथ्या' के सिद्धान्त के आधार पर संसार में रह कर भी अपने ब्रह्मभाव को जानने का प्रयास करने की विधि है। जब साधक स्वयं को ईश्वर (ब्रहा) के रूप ने जान लेता है 'अहं ब्रह्मास्मि’ का बोध होते ही वह बंधनमुक्त हो जाता है। उपनिषद मुख्यतया इसी ज्ञान का स्रोत हैं। ज्ञानयोग साधना में अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम शरीर व मन को महत्व दिया गया है। ज्ञान योग के दो महत्वपूर्ण साधन है। ज्ञानयोग के साधनो को स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती न इस प्रकार बताया है।

ज्ञान योग- 1. बहिरंग साधन  2. अन्तरंग साधन

1. बहिरंग साधन- बहिरंग का अर्थ है बाहर के या प्रारम्भिक। ज्ञानयोग के निम्न 4 प्रारंभिक साधन बताये है। विवेक, वैराग्य, षटसम्पति तथा मुमुक्षुत्व

(क) विवेकः नित्य और अनित्य का ज्ञान ही विवेक है साधक यदि विवेकानुसार कार्य करता है तो समझ लेना चाहिए कि उसे ज्ञान की प्राप्ति हो गई है। व्यक्ति अज्ञान के कारण ही अनित्य कर्म करता है और इसी कारण उसे जन्म जन्मान्तरों तक उसके फलों का भोग करना पडता है। आचार्य रामानुजाचार्य खाद्य तथा अखाद्य पदार्थ के विवेक पर बल देते हैं। भोजन के दोषो को मध्यनजर रखते हुए ही खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए तभी व्यक्ति अपने अभिष्ठ की प्राप्ति कर सकता है। स्मरण रखने योग्य बात है कि तामसिक वस्तुओं का सेवन शरीर व मन दोनो के लिए अच्छा नहीं है। आध्यात्मिक तथा यौगिक दृष्टि के अनुसार भी नित्य व अनित्य का ज्ञान विवेक है। नित्य वस्तु एकमात्र ब्रह्म है, ब्रह्मा के अलावा समस्त संसार झूठा है। कहा भी गया है कि- 'ब्रहासत्यं जगतमिथ्या'

(ख) वैराग्य: भारतीय चिन्तन में वैराग्य एक जाना पहचाना शब्द है। जिस व्यक्ति को कोई राग नहीं वह वैराग्य है। चाह व्यक्ति को दो प्रकार की हो सकती है-
1. इस संसार के ऐश्वर्या की  2. स्वर्णीय सुख भोगने की

असली वैराग्य वह है जो इऩ दोनो इच्छाओं से परे हो। अर्थात इस लोक और स्वर्ग आदि लोकों के भोगो की इच्छा का परित्याग कर देना वैराग्य है।

(ग) षटसम्पति- षट का अर्थ है छ: और सम्पति का अर्थ है साधन ये इस प्रकार है। 1-शम 2- दम 3- उपरति 4- तितिक्षा 5- श्रद्धा 6- समाधान

1. शमः शम का अर्थ है इन्दियों का निग्रह कर लेना। मनुष्य की 11 इन्द्रियॉ मानी जाती है जिसमे 5 ज्ञानेन्द्रिय 5 कर्मेन्द्रिय और एक मन। वैसे शम का अर्थ इन्द्रिय के निग्रह के रुप में लेते है परन्तु मऩ एक ऐसी इन्द्रिय है जो स्वभाव से बडी चंचल है वायु से भी तेज गति से चलने वाली इस इन्द्रिय पर नियन्त्रण करना मुश्किल जरूर पर असम्भव नहीं हैं। कहा गया है। 

शमो नाम अन्तरिन्द्रिनिग्रह: अन्तरिन्द्रिय नाम मन: तस्य निग्रह: ।।
इसलिए शम का तात्पर्य है इस अन्तरिन्द्रिय मन का निग्रह कर लेना।
भगवत् गीता मे कहा है-
असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम्। 

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन च गृह्यते।।
अर्थात है महाबाहो अर्जुन निश्चय ही यह मन बडा चंचल है परन्तु अभ्यास और वैराग्य द्वारा इसे वश मे किया जाता है। योगसूत्र में भी चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिए अभ्यास व वैराग्य नामक दो साधनायें बताई गयी है।

2. दम: दम का अर्थ है दमन करना 10 इन्द्रियो को उनके विषयों से अलग करने की विद्या दम है। जिस प्रकार एक घुडसवार लगाम खींचकर घोडे पर काबू कर लेता है तथा अपने अनुसार उसे मार्ग पर ले जाता हैँ ठीक उसी प्रकार जब हमारी इन्द्रियॉ इधर उधर भटके तो दम रूपी लगाम से इसको विषयों से अलग करें। मन को इसी प्रकार ब्रहमचिन्तन मे लगाये रखने की विद्या का नाम दम है।

3. उपरतिः किसी वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर उदासीन भाव धारण करना उपरति है। संसार की विषय वस्तुओं के प्रति कोई आसक्ति नहीं रखना उपरति है। जगत की वस्तुओं के प्रति राग रहित होकर अपने-अपने धर्म में तत्पर रहना ही उपरति कहलाता है

4. तितिक्षाः तितिक्षा का शाब्दिक अर्थ है सहनशीलता ससस्तं दृन्दों को सहन करते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना में निरन्तर लगे रहना तितिक्षा है। लाभ हानि, जय पराजय, सुख दुःख, शीत उष्ण आदि दृन्दों को सामान्य रूप से सहन कर लेना तितिक्षा है। जब साधक कोई तप करता है तो जरूरी है कि वे सारे दृब्दों को सहन करे कहा भी गया है- तपो द्वन्द्ध सहनम्
अर्थात् द्वन्द (सर्दी गर्मी, भूख प्यास) को सहन कर लेना तप है। महर्षि पतंजलि ने साधनपाद मे कहा है।
कायेन्द्रियशिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस: योगसूत्र
2 / 43

अर्थात तप करने से जब अशुद्धि का क्षय हो जाता हैं तब शरीर तथा इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है और यह सब तितिक्षा से ही सम्भव है। 

5. श्रद्धाः प्राचीन आर्ष ग्रन्थो (वेदो. उपनिषदो. पुराणों, स्मृतियों, आरण्यको, गीता, योगसूत्र) तथा गुरू वाक्यो में दृढ़ निष्ठा एवं अटल विश्वास का नाम श्रद्धा है। श्रद्धा का दूसरा नाम आस्था भी है। जो व्यक्ति श्रद्धा रहित होता है उसे ब्रहमज्ञान की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। कहा गया है 'संशयात्मा विनश्यति' अर्थात जो संशयआत्मा है उसका विनाश होता है। अत: योगी को संशय रहित होना चाहिए। महर्षि पतंजलि ने चित्त विक्षेपो मे संशय को विघ्न माना है। अत: गुरूवाक्यो और प्राचीन आर्ष ग्रन्थों की वैज्ञानिकता तथा दार्शनिकता पर संशय न करते हुए श्रद्धा रखना आत्म कल्याण के लिए आवश्यक है। गीता में योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण कहते है- श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् 

6. समाधानः चित्त की एकाग्रता समाधान है चित्त स्वभाव से चंचल है क्योकि चित्त मे वृत्तियाँ विक्षेप हमेशा विद्धमान रहता है। यौगिक अभ्यासों (जिसमे महर्षि पतंजलि ने आभ्यास वैराग्य, चित्त प्रसादन के उयाय बताये है) के द्वारा चित्त को एकाग्र करें तथा चित्त को ब्रहम में स्थिर किये रखना ही समाधान है।

(घ) मुमुक्षत्वः मोक्ष प्राप्ति की इच्छा रखना मुमुक्षत्व कहलाता है। इस संसार में सभी वस्तुएँ अनित्य है तथा संसार की प्रत्येक वस्तु में दुःख भरा पडा है। समस्त भौतिक पदार्थो से विरक्त रहकर मोक्ष प्राप्ति की इच्छा रखना मुमुक्षत्व है।       

 

2. अन्तरंग साधन- अन्तरण साधना के निम्न तीन भेद है जो इस प्रकार है। श्रवण, मनन, निदिध्यासन

(क) श्रवणः अर्थात सुनना। वेदवाक्यो को सुनना। संशयरहित होकर गुरूमुख से प्राचीन आर्ष ग्रन्थों में वर्णित साधनाओं तथा ब्रहमज्ञान को सुनना श्रवण कहलाता है। 

(ख) मननः श्रवण की गईं बातों को बारम्बार मन में लाना मनन कहलाता है। गुरू के मुख से कैवल्य विषयक सुने गये विषय को अन्तःकरण में बैठाकर बार बार चिन्तन करना मनन कहलाता है।   

(ग) निदिध्यासन-  निदिध्यासन का अर्थ है अनुभूति करना या आत्मसाक्षात्कार करना। वेदान्त दर्शन में निदिध्यासन को योग माना गया है। स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती द्वारा वर्णित पुस्तक योग विज्ञान में निदिध्यासन के निम्न 15 अंग बताये गये है- 1.यम 2.नियम 3.त्याग 4.मौन 5.देश 6.काल 7.आसन 8.मूलबन्ध 9.देह स्थिति 10.दृक शक्ति 11.प्राणायाम 12.प्रत्याहार 13.धारना 14.ध्यान 15.समाधि

1. यमः- इन्द्रियों को वश में कर यह अनुभव करना कि यह सब ब्रहम है यम कहलाता है।

2. नियमः- सजातीय वृति का प्रवाह और विजातीय वृति का तिरस्कार यही परमानन्द रुप नियम है।

3. त्यागः- समस्त संसार को झूठ मानते हुए यह समझा जाय कि ब्रहम ही सत्य है। इस प्रकार का ज्ञान करने से जगतरूप प्रपंच का त्याग हो जाता है। यही त्याग है।

4. मौनः-
जिसे न पाकर मन सहित वाणी आदि इन्द्रियाँ लौट आती हो और तुष्णीभूत हो जाती हो वही योगियों का मौन है।

5. देशः- अन्तःकरण के अन्दर एक एकान्त क्षेत्र (देश) मे मन को लगाना ।

6. कालः- अखण्ड स्वरूप अद्वितीय ब्रहम मे नित्य बुद्धि रखना काल है ।

7. आसनः- जिस अवस्था में बैठकर ब्रहम का चिन्तन किया जाये तो उसे आसन समझना चाहिए। चार महत्वपूर्ण ध्यान के आसन है सिंहासन, पद्मासन, स्वस्तिकासन, सुखासन

8. मूलबन्धः- जो समस्त भूतों का मूल है उसमे जब चित्त को बाँध दिया जाता है तो यही मूलबन्ध कहलाता है। स्मरण रहे कि हठयोग में मूलबन्ध अलग बताया गया है।

9. देह स्थितिः- जब मन ब्रहम मे एकाग्र हो जाता है तो उस समय शरीर के अंगो की स्थिति निश्चल हो जाती है और यही देह स्थिति का अभिप्राय है।

10. दृक स्थितिः- दृष्टि को ज्ञानमयी बना करके जगत को ब्रहममय देखे तो यही दृक स्थिति कहलाती है।

11. प्राणायामः- श्वास भरते हुए अनुभव करे कि मै ही ब्रह्म हूँ। जिसे पूरक कहते है! उस वृति की निश्चल स्थिति का नाम कुम्भक प्राणायाम है और जगत रुप प्रपंच का निषेध यानि अभाव वृत्ति का नाम रेचक प्राणायाम है। इसे ही ज्ञानयोगी प्राणायाम कहते है।

12. प्रत्याहारः- प्रत्याहार का सामान्य अर्थ इन्द्रिय संयम है। बहिर्मुखी इन्द्रियों को विषयो से हटा कर अन्तर्मुखी बना लेना प्रत्याहार है।

13. धारणाः- किसी देश विशेष में चित्त को बाँध लेना धारणा है। जहाँ भी मन चला जाये वहॉ पर ब्रहम दृष्टि करके मन को लगा देना धारणा है। 

14. ध्यानः- धारणा की उच्च अवस्था ध्यान है। निश्चय ही में सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रहम से अभिन्न हूँ, इस सद्-वृत्ति को रखना ध्यान है।

15. समाधिः- ध्यान की परिपक्व अवस्था समाधि है। समाधि की अवस्था मे अपना भी आभास नहीं रहता और स्वरूप शून्य हो जाता है यह समाधि है। 


योग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

योग का उद्देश्य | योग का महत्व

योग की परिभाषा

Comments

Popular posts from this blog

"चक्र " - मानव शरीर में वर्णित शक्ति केन्द्र

7 Chakras in Human Body हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी के एक निश्चित मार्ग द्वारा होता है। और एक विशिष्ट बिन्दु पर इसका संगम होता है। यह बिन्दु प्राण अथवा आत्मिक शक्ति का केन्द्र होते है। योग में इन्हें चक्र कहा जाता है। चक्र हमारे शरीर में ऊर्जा के परिपथ का निर्माण करते हैं। यह परिपथ मेरूदण्ड में होता है। चक्र उच्च तलों से ऊर्जा को ग्रहण करते है तथा उसका वितरण मन और शरीर को करते है। 'चक्र' शब्द का अर्थ-  'चक्र' का शाब्दिक अर्थ पहिया या वृत्त माना जाता है। किन्तु इस संस्कृत शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ चक्रवात या भँवर से है। चक्र अतीन्द्रिय शक्ति केन्द्रों की ऐसी विशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गतिमान रहती हैं। इन तरंगों को अनुभव किया जा सकता है। हर चक्र की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चक्र की तरंगगति के अनुसार अलग अलग रंग को घूर्णनशील प्रकाश के रूप में इन्हें देखा जाता है। योगियों ने गहन ध्यान की स्थिति में चक्रों को विभिन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प के रूप में देखा। इसीलिए योगशास्त्र में इन चक्रों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा ग...

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति सामान्य परिचय

प्रथम उपदेश- पिण्ड उत्पति विचार सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति अध्याय - 2 (पिण्ड विचार) सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार नौ चक्रो के नाम 1. ब्रहमचक्र - मूलाधार मे स्थित है, कामनाओं की पूर्ति होती हैं। 2. स्वाधिष्ठान चक्र - इससे हम चीजो को आकर्षित कर सकते है। 3. नाभी चक्र - सिद्धि की प्राप्ति होती है। 4. अनाहत चक्र - हृदय में स्थित होता है। 5. कण्ठचक्र - विशुद्धि-संकल्प पूर्ति, आवाज मधुर होती है। 6. तालुचक्र -  घटिका में, जिह्वा के मूल भाग में,  लय सिद्धि प्राप्त होती है। 7. भ्रुचक्र -     आज्ञा चक्र - वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। 8. निर्वाणचक्र - ब्रहमरन्ध्र, सहस्त्रार चक्र, मोक्ष प्राप्ति 9. आकाश चक्र - सहस्त्रारचक्र के ऊपर,  भय- द्वेष की समाप्ति होती है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति के अनुसार सोहल आधार (1) पादांगुष्ठ आधार (2) मूलाधार (3) गुदाद्वार आधार (4) मेद् आधार (5) उड्डियान आधार (6) नाभी आधार (7) हृदयाधार (8) कण्ठाधार (9) घटिकाधार (10) तालु आधार (11) जिह्वा आधार (12) भ्रूमध्य आधार (13) नासिका आधार (14) नासामूल कपाट आधार (15) ललाट आधार (16) ब्रहमरंध्र आधार सिद्ध...

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित प्राणायाम

हठयोग प्रदीपिका में प्राणायाम को कुम्भक कहा है, स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायामों का वर्णन करते हुए कहा है - सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतल्री तथा।  भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनीत्यष्टकुंम्भका:।। (हठयोगप्रदीपिका- 2/44) अर्थात् - सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्छा और प्लाविनी में आठ प्रकार के कुम्भक (प्राणायाम) है। इनका वर्णन ऩिम्न प्रकार है 1. सूर्यभेदी प्राणायाम - हठयोग प्रदीपिका में सूर्यभेदन या सूर्यभेदी प्राणायाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है - आसने सुखदे योगी बदध्वा चैवासनं ततः।  दक्षनाड्या समाकृष्य बहिस्थं पवन शनै:।।  आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि क्रुंभयेत। ततः शनैः सव्य नाड्या रेचयेत् पवन शनै:।। (ह.प्र. 2/48/49) अर्थात- पवित्र और समतल स्थान में उपयुक्त आसन बिछाकर उसके ऊपर पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी आसन में सुखपूर्वक मेरुदण्ड, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए बैठेै। फिर दाहिने नासारन्ध्र अर्थात पिंगला नाडी से शनैः शनैः पूरक करें। आभ्यन्तर कुम्भक करें। कुम्भक के समय मूलबन्ध व जालन्धरबन्ध लगा कर रखें।  यथा शक्ति कुम्भक के प...

हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध

  हठयोगप्रदीपिका में वर्णित मुद्रायें, बंध हठयोग प्रदीपिका में मुद्राओं का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है महामुद्रा महाबन्धों महावेधश्च खेचरी।  उड़्डीयानं मूलबन्धस्ततो जालंधराभिध:। (हठयोगप्रदीपिका- 3/6 ) करणी विपरीताख्या बज़्रोली शक्तिचालनम्।  इदं हि मुद्रादश्क जरामरणनाशनम्।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/7) अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयानबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, विपरीतकरणी, वज़्रोली और शक्तिचालनी ये दस मुद्रायें हैं। जो जरा (वृद्धा अवस्था) मरण (मृत्यु) का नाश करने वाली है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है।  1. महामुद्रा- महामुद्रा का वर्णन करते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम्।  प्रसारितं पद कृत्या कराभ्यां धारयेदृढम्।।  कंठे बंधं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।  यथा दण्डहतः सर्पों दंडाकारः प्रजायते  ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेतत् ।।  (हठयोगप्रदीपिका- 3/9,10)  अर्थात् बायें पैर को एड़ी को गुदा और उपस्थ के मध्य सीवन पर दृढ़ता से लगाकर दाहिने पैर को फैला कर रखें...

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति

 चित्त  चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की...

चित्त विक्षेप | योगान्तराय

चित्त विक्षेपों को ही योगान्तराय ' कहते है जो चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता को नष्ट कर देते हैं उन्हें योगान्तराय अथवा योग के विध्न कहा जाता।  'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः'।  ये योग के मध्य में आते हैं इसलिये इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। विघ्नों से व्यथित होकर योग साधक साधना को बीच में ही छोड़कर चल देते हैं। विध्न आयें ही नहीं अथवा यदि आ जायें तो उनको सहने की शक्ति चित्त में आ जाये, ऐसी दया ईश्वर ही कर सकता है। यह तो सम्भव नहीं कि विध्न न आयें। “श्रेयांसि बहुविध्नानि' शुभकार्यों में विध्न आया ही करते हैं। उनसे टकराने का साहस योगसाधक में होना चाहिए। ईश्वर की अनुकम्पा से यह सम्भव होता है।  व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः (योगसूत्र - 1/30) योगसूत्र के अनुसार चित्त विक्षेपों  या अन्तरायों की संख्या नौ हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। उक्त नौ अन्तराय ही चित्त को विक्षिप्त करते हैं। अतः ये योगविरोधी हैं इन्हें योग के मल...

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म

हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं ध...

Yoga MCQ Questions Answers in Hindi

 Yoga multiple choice questions in Hindi for UGC NET JRF Yoga, QCI Yoga, YCB Exam नोट :- इस प्रश्नपत्र में (25) बहुसंकल्पीय प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के दो (2) अंक है। सभी प्रश्न अनिवार्य ।   1. किस उपनिषद्‌ में ओंकार के चार चरणों का उल्लेख किया गया है? (1) प्रश्नोपनिषद्‌         (2) मुण्डकोपनिषद्‌ (3) माण्डूक्योपनिषद्‌  (4) कठोपनिषद्‌ 2 योग वासिष्ठ में निम्नलिखित में से किस पर बल दिया गया है? (1) ज्ञान योग  (2) मंत्र योग  (3) राजयोग  (4) भक्ति योग 3. पुरुष और प्रकृति निम्नलिखित में से किस दर्शन की दो मुख्य अवधारणाएं हैं ? (1) वेदांत           (2) सांख्य (3) पूर्व मीमांसा (4) वैशेषिक 4. निम्नांकित में से कौन-सी नाड़ी दस मुख्य नाडियों में शामिल नहीं है? (1) अलम्बुषा  (2) कुहू  (3) कूर्म  (4) शंखिनी 5. योगवासिष्ठानुसार निम्नलिखित में से क्या ज्ञानभूमिका के अन्तर्गत नहीं आता है? (1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) सद्भावना (4) तनुमानसा 6. प्रश्नो...

आसन का अर्थ एवं परिभाषायें, आसनो के उद्देश्य

आसन का अर्थ आसन शब्द के अनेक अर्थ है जैसे  बैठने का ढंग, शरीर के अंगों की एक विशेष स्थिति, ठहर जाना, शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा, आसन अर्थात जिसके ऊपर बैठा जाता है। संस्कृत व्याकरंण के अनुसार आसन शब्द अस धातु से बना है जिसके दो अर्थ होते है। 1. बैठने का स्थान : जैसे दरी, मृग छाल, कालीन, चादर  2. शारीरिक स्थिति : अर्थात शरीर के अंगों की स्थिति  आसन की परिभाषा हम जिस स्थिति में रहते है वह आसन उसी नाम से जाना जाता है। जैसे मुर्गे की स्थिति को कुक्कुटासन, मयूर की स्थिति को मयूरासन। आसनों को विभिन्न ग्रन्थों में अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की परिभाषा-   महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधन पाद में आसन को परिभाषित करते हुए कहा है। 'स्थिरसुखमासनम्' योगसूत्र 2/46  अर्थात स्थिरता पूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो वह आसन है। उक्त परिभाषा का अगर विवेचन करे तो हम कह सकते है शरीर को बिना हिलाए, डुलाए अथवा चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हुए बिना चिरकाल तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में सु...

Information and Communication Technology विषय पर MCQs (Set-3)

  1. "HTTPS" में "P" का अर्थ क्या है? A) Process B) Packet C) Protocol D) Program ANSWER= (C) Protocol Check Answer   2. कौन-सा उपकरण 'डेटा' को डिजिटल रूप में परिवर्तित करता है? A) हब B) मॉडेम C) राउटर D) स्विच ANSWER= (B) मॉडेम Check Answer   3. किस प्रोटोकॉल का उपयोग 'ईमेल' भेजने के लिए किया जाता है? A) SMTP B) HTTP C) FTP D) POP3 ANSWER= (A) SMTP Check Answer   4. 'क्लाउड स्टोरेज' सेवा का एक उदाहरण क्या है? A) Paint B) Notepad C) MS Word D) Google Drive ANSWER= (D) Google Drive Check Answer   5. 'Firewall' का मुख्य कार्य क्या है? A) फाइल्स को एनक्रिप्ट करना B) डेटा को बैकअप करना C) नेटवर्क को सुरक्षित करना D) वायरस को स्कैन करना ANSWER= (C) नेटवर्क को सुरक्षित करना Check Answer   6. 'VPN' का पू...